तंगहाली ने दिखाए सबसे बुरे दिन: किसी ने बीवी के गहने बेचे तो किसी ने पावरलूम बेचकर खोली टॉफी-बिस्किट की दुकान

उत्तरप्रदेश केकाशी में जलालीपुरा की पहचान बुनकरों से है। यहां कभी 24 घंटे खटर-पटर की आवाजें सुनाई देती थीं, लेकिन तीन माह से यहां खामोशी है। कोरोनावायरस के चलते देशव्यापी लॉकडाउन से यह धंधा चौपट हो गया। नतीजा पांच लाख से ज्यादा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बुनकरों के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया। लॉकडाउन में यहां किसी ने गुजारा करने के लिए पत्नी के गहनेबेच दिएतो किसी ने मशीनों को कबाड़ी के हाथ बेच दी। कुछ ने तो बुनकरी छोड़ सब्जी का ठेला लगाना शुरू कर दिया है। बनारसी साड़ी को दुनिया में पहचान दिलाने वाले बुनकर अब इस धंधे से दूर हो रहे हैं। छह बुनकर परिवारों की कहानी, उनकी जुबानी...

पहली कहानी: पत्नी के जेवरबेचकर गुजारा किया

60 साल के सरदार शमसुद्दीन की लंबी उमर बुनाई के काम में गुजर गई। इनके घर में कुछ करघा बंद पड़े हैं तो कुछ को उन्होंने खोलकर खूंटी पर टांग दिया है। शमशुद्दीन कहते हैं कि, इतने बुरे दिन कभी नहीं देखे। बेटी, बेटा, पोता-पोती मिलाकर 22 लोगों का परिवार है। बुनकरी ही परिवार का आधार है। लेकिन लॉकडाउन में मशीनें बंद हुईं तो कमाई भी ठप हो गई। जमापूंजी से कुछ दिन गुजरे। बाद में जिस गद्दीदार (व्यापारी) को साड़ी देते थे, उसी से कर्ज लेना पड़ा। लेकिन, कर्ज से कितने दिन परिवार का पेट भरते? मजबूरी में रमजान में पत्नी के जेवरात बेच दिए। 60 हजार रुपए मिले, जिससे अब तक खर्च की गाड़ी चली है। 5-5 किलो गेहूं व चावल सरकारी कोटे से मिला है। चटनी चावल खाकर दिन काट रहे हैं। बच्चे भी अब दूसरे रोजगार करने की सोच रहे हैं।

कारीगर शमशुद्दीन।

दूसरी कहानी: 40 हजार में बेच दी मशीन, खोल ली दुकान

55 साल के जमील अहमद 24 लोगों का परिवार है। जमील कहते हैं कि बाजार में बनारसी साड़ी का कारोबार ठप है। होली से ही बाजार पर कोरोना की मार पड़ने लगी थी। पहले लोग खाएंगे कि खरीदारी करेंगे? शादियों में 25-50 लोगों को ही जुटने की अनुमति है। अब कोई ऑर्डर भी नहीं है। जमा पूंजी से जब तक परिवार का खर्च चल पाया, तब तक चला। जब लगा कि अब खाने का संकट हो जाएगा तो 40 हजार रुपए में साड़ी बुनने वाली मशीन बेच दी। उसी पैसे से अब छोटी सी दुकान खोल ली है। टॉफी, बिस्किट, दूध, राशन बेचने लगा हूं। परिवार का पेट भरने भर का पैसा मिल रहा है। सरकार से 500-1000 रुपए कैसे मिलता है? मुझे नहीं मालूम। लॉकडाउन में दूध की बिक्री बहुत थी। मेरे जैसे कई बुनकर हैं, जो अब दुकान खोलकर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं।

जमील अहमद।

तीसरी कहानी: कर्ज लेकर सब्जियां बेचना शुरू किया

सलीम की उम्र 50 के करीब है। लॉकडाउन में उनके परिवार में इस कदर तंगहाली आई कि उन्होंने बुनकरी छोड़कर सब्जी बेचना शुरू कर दिया है। उनके घर लगे करघे बंद पड़े हैं। अब उसी कमरे में उन्होंने सब्जियां रखना शुरू कर दिया है। सलीम की तीन बेटियां और तीन बेटे हैं। दो बेटियों की शादी हो चुकी है। चार बच्चे सलीम के साथ रहते हैं। सलीम ने कहा- ऊपर वाला ऐसा दिन कभी किसी को न दिखाए। छोटा सा कर्ज लेकर सब्जी बेचने का काम शुरू किया है। शुरुआत में इस काम में शर्म भी आई, लेकिन पेट पालना था। मेरे भीतर एक बुरी लत है बीड़ी पीने की। लेकिन अब बीड़ी पीने के भी पैसे नहीं बचते हैं। अच्छा ही है, यह लत छूट जाएगी।

सलीम।

चौथी कहानी: हाथ खाली हुए तो खजूर बेचा
बिलाल अहमद ने अपनी आंखों के सामने हथकरघा को पावरलूम में बदलते हुए देखा है। उनकी उम्र 55 साल है। लेकिन इन दिनों उनके यहां लगी मशीनों में जाले लग चुके हैं। परिवार में पत्नी और 9 बच्चे हैं। वे बताते हैं कि, लॉकडाउन ने रोजगार छीन लिया। साढ़े तीन हजार कर्ज लेकर घर पर ही छोटी सी दुकान खोल लिया है। टॉफी, बिस्किट, राशन व दूध बेंचकर कुछ आमदनी हो जाती है। रमजान में ज्यादा तंगहाली आ गई थी तो खूजर बेचे थे। आगे भी अंधकार ही दिखाई पड़ रहा है।

बिलाल अहमद।

बिलाल अहमद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाराज भी दिखे। कहा- लॉकडाउन करने से पहले उन्हें गरीबों के बारें में सोचना चाहिए था। भुखमरी की नौबत न आए इसलिए सम्मान से जीने वाला बुनकर रोजगार छोड़ रहा है। आने वाली पीढ़ी इससे दूर हो जाएगी।

मशीन पर लगे जाले।

पांचवीं कहानी: अब पुश्तैनी काम में दम नहीं

45 वर्षीय सलाउद्दीन का 6 लोगों का परिवार है। बुनकरी से आराम से 15 से 20 हजार हर कमा लेते थे। लेकिन, लॉकडाउन में धंधा बंद हो गया। अब बाटी चोखा की दुकान लगाते हैं। सलाऊद्दीन कहते हैं कि, बाजार खुल गए हैं। तमाम दुकानें भी लग रही हैं। लेकिन, लोगों में बाहर खाने पीने में डर है। लोग सामान जल्दी नहीं खरीदते हैं। परिवार को पालना मुश्किल हो गया है। सरकार की तरफ से 500 रुपए मिले। लेकिन, इससे क्या होगा? बच्चे अभी छोटे छोटे हैं। लॉकडाउन ने इस बात का अहसास करा दिया कि, पुश्तैनी काम में अब दम नहीं बचा है। समय रहते कुछ और नहीं सोचा तो खाना भी नसीब नहीं होगा।

बुनकर का काम छोड़कर लिट्‌टी-चोखा बेचते सलाउद्दीन।

छठी कहानी: न राशन मिला न रुपए, सरकारी इमदाद भी नहीं

50 वर्षीय अनवार अहमद कम उम्र से ही बुनकरी के काम में रम गए थे। परिवार में 9 लोग हैं। अनवार ने दस दिन पहले ही जमा पूंजी से सब्जी बेचने के लिए ठेला खरीदा है। अब वे शहर की गलियों में घूमकर सब्जी बेचते हैं। वे कहते हैं किन ही उन्हें किसी ने राशन दिया न ही कोई पैसा अकाउंट में आया। गद्दीदार को साड़ियां बनाकर दी थी। लेकिन उसने भी मेहनत का पैसा रोककर रखा है। कहता है कि माल बिकेगा तो कुछ मिलेगा।

अनवार अहमद।

क्या कहते हैं वार्ड पार्षद?

जलालीपुरा वार्ड नंबर 39 के पार्षद हाजी ओकास अंसारी हैं। वे बताते हैं- "मोहल्ले की आबादी करीब 40 हजार के आसपास है। करीब 2500 कच्चे-पक्के मकान हैं। 4000 के करीब हिंदू आबादी भी यहां होगी। 80 से 90 प्रतिशत लोग बुनकरी के धंधे से जुड़े हैं। लॉकडाउन में बुनकर परिवारों की मदद के लिए 800 से 1000 राशन किट बांटी गई है। जरूरत के अन्य सामानों को भी दिया गया। लेकिन, यहां सरकारी मदद न के बराबर पहुंची। कई बुनकरों ने मजबूरी में दूसरे रोजगार को करना उचित समझा। बहुत से बुनकर कर्ज में डूबे हैं।"

चुनावों में केंद्र बिंदु रहे बुनकर मगर नहीं सुधरेहालात
लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का चुनाव, पूर्वांचल के बुनकरों को अपने पाले में करने की खींचतान हर पार्टियों ने की। लेकिन,इनकी हालत जस की तस है। नतीजा बुनकर उद्योग अब बंद होने की कगार पर है।

बनारस पावरलूम वीवर्स एसोसिएशन के पूर्व जनरल सेकेट्री और समाजसेवी अतीक अंसारी ने बताया- "साल 2006 में मुलायम सिंह यादव की सरकार में बुनकरों को 150 करोड़ रुपए का सबसे बड़ा पैकेज मिला था। बुनकर कार्ड भी बनाए गए थे। बिजली विभाग को 72 रुपए देकर एक माह तक पावरलूम चलता था।

साल 2019 तक यही व्यवस्था रही। लेकिन, योगी सरकार ने अब इसे 1600 रुपए प्रति एक पावरलूम कर दिया है। जब बुनकर बिल जमा करेगा, तब उसे 600 रुपए सब्सिडी के रूप में खाते में मिलेगा। लेकिन, अभी यह लागू नहीं हुआ है। दूसरी मार जीएसटी लागू होने के बाद पड़ी है। वर्तमान में काशी में 30 हजार से अधिक बुनकर कार्ड और डेढ़ लाख के करीब पावरलूम होंगे। हैंडलूम 10 प्रतिशत ही बचा होगा।"

बुनकरी उद्योग से जुड़े लोगों में नेतृत्व की कमी
काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रो. सतीश राय ने बताया कि, इस पेशे से जुड़े लोगों में नेतृत्व की कमी रही है। अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर की तरह यह उद्योग बढ़ता गया। भविष्य को लेकर योजनाओं को बनाने की कमी रही। मुलायम सिंह सरकार की योजना का लाभ बुनकरों को मिला। इसीलिए बुनकरों का झुकाव अखिलेश सरकार की तरफ भी हुआ था। बनारस, मिर्जापुर, भदोही, जौनपुर मऊ, आजमगढ़, पूर्वांचल का केंद्र रहा है।



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
वाराणसी के जलालीपुरा में घर-घर बुनकरी का काम होता है। लेकिन लॉकडाउन में यह धंधा चौपट हो गया। अब पावरलूम बंद पड़े हैं। लोग बेरोजगार होकर दूसरे धंधे अपना रहे हैं। ऐसे में पूरी दुनिया में बनारसी साड़ियों को पहचान दिलाने वाला यह उद्योग अब संकट में है।


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3dij8mI

Post a Comment

أحدث أقدم